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बाबा गणिनाथजी : एक दिव्य पुरुष - Kanu Samaj Nepal

बाबा गणिनाथजी : एक दिव्य पुरुष

 

समझ नहीं पायेगा, युग–युग तक जग सारा,

तुम मानव या मानवता के महाकाव्य थे ।।

– नीरज

गणिनाथ जी महाराज एक दिव्य पुरुष थे और महामानव एवं कर्मयोगी भी थे । मानवता, सह्दयता, अपनत्व–ममत्व के एक सच्चे उद्घोषक भी थे ।

अग्रहरि, हलुवाई, कलवार, तेली, कानू और कुम्हारों इत्यादि के लोकदेवता बाबा गणिनाथ का अवतरण वैशाली जिलान्तर्गत पलवैया ग्राम (महानार से ठिक आठ किलोमीटर पूरब) में गंगा किनारे भादो कृष्णाष्टमी के बाद के शनिवार दिन को हुआ था । उनकी देवांशी जन्म संबंधी एक कथा है । कलियुग में बहुत अत्याचार और अधर्म को रोकने के लिए तथा गरीबों के कल्याणार्थ ब्रह्मा, बिष्णु और महेश ने एक संयुक्त यज्ञ किया । उसी यज्ञाग्नि से बारह वर्ष का एक दिव्य बालक निकला, जिसका नाम ‘गणिनाथ’ हुआ । उनकी पत्नी का नाम खेमासती था और उनके पुत्र का नाम गोविन्द

संतजन और महापुरुषगण विश्व–वाटिका के सुवासित सुमन हैं । वे स्वयं जीवन की सुवास से सुवासित होते हैं और अपने इर्द गिर्द के  वतावरण को भी सुरभित और सुरम्य बनाते हैं । ऐसे संत महापुरुषों में बाबा गणिनाथ का भी एक महत्वपूर्ण स्थान था और है । महामानव बाबा गणिनाथजी का जीवन एक सच्चे महात्मा का जीवन था । वहा न दम्भ था न छल था, न प्रपंच था, न किसी तरह का दुख, बिखराव व दिखावा था । उनका जीवन एक खुली किताब थी जिसे हर कोई पढ सकता था । उनमें ज्ञान था, पर ज्ञान की गर्वीली ग्रंथियां नहीं थी । त्याग था, पर त्याग के राग का मद नहीं था ।

उनका जीवन था शरद् ऋतु के निर्मल सरोवर की तरह । जिसमें खिले थे सुगन्धित गुण – प्रसून, जिसकी मधुर मुस्कान निराश – हताश मनुष्यों को संजीवित करती थी ।

मझला कद, भव्य ललाट, मुस्काते अधर, विकसित नेत्र, शान्त और तेजोदप्ति मुख मुद्रा, कृशकाय देह, गंभीर वाणी, विनय – विवेक, नम्रता – मर्यादा व शालीनता की मस्ती से मस्त जीवन, इन सभी ने मिलकर ऐसे अनुपम – अनूठे व्यक्तित्व का निर्माण किया था, जिसे लोग ‘बाबा गणिनाथ’ के नाम से पहचानते थे ।

उनका वाह्य व्यक्तित्व जितना आकर्षक था, आंतरिक जीवन उतना ही ओजस्वी एवं मनमोहक था । वे प्रकृति के सहज–सरल स्वभाव से कोमल और ह्दय से उदार थे । उनका व्यापक और विराट व्यक्तित्व समूची विशेषताओं से समन्वित है ।

वास्तव में विराटता की ओर बढता हुआ बाबा गणिनाथ का व्यक्तित्व स्वयं हि एक प्रेरणा है जो अवरुद्ध कदमों में गति का संचार करती है । एक जलती लौहै जिसकी रौशनी से सहस्त्रों दीप जलते हैं । एक महकता निकुञ्ज है जिसमें उठने वाली उत्ताल तरंगें अज्ञानतिमिर में भटकते हुए मानव समाज, कानू और हलवाई समाज को ज्ञानालोक से आलोकित करती है । स्फटिक की भाति उजला उनका ज्योतिर्मय जीवन समग्र वैश्य समाज के लिए एक आदर्श है वहीं कानू, यज्ञसैनी, हलुआई, मोदक समाज के लिए एकप्रेरणादायिनी उद्घोष भी है ।

बाबा गणिनाथ जी के नस–नस में माता–पिता की भक्ति रमी हुई थी । माता–पिता का आदर, सम्मान, सेवा सुश्रुषा और उनके प्रति सदा कृतज्ञ रहना यह उनके जीवन–आदर्शो का मुख्य स्त्रोत रहा है । ऐसे मातृभक्त बाबा गणिनाथजी महाराज के लिए अब्राहम लिंकन की ये पंक्तियाँ स्मृतिपटल पर आ रही है– “मैं जो कुछ भी हुँ, होने की आशा करता हुँ, उसका श्रेय मेरी दिव्य माता में है ।” (All that I am or hope to be, I owe to my angel Mother).

मातृ–पितृ भक्ति के विषय में कहा गया है – ‘मातापितरश्चपूजकः भव’ माता–पिता के पूजक बनो । पवित्र बाइविल में माता–पिताकी अवहेलना करने वाले के लिए कहा गया है– ‘जो पुत्र अपने माता–पिता को फिजूल समझता है तथा माता को दूर धकेल देता है वह लज्जा और घृणा का पात्र है (He that wasteth his father and chaseth away his mother is a son that conseth shama and birngeth reproach).

बाबा गणिनाथ जी अपने आत्मा को उद्बोधित करते हुए कहते है – गनी ! निर्भयतापूर्वक पुरुषार्थ कर । आँधी – तूफान तो आयेंगे ही पर ये तेरा कुछ भी बिगाड नहिं सकेंगे । शेक्सपियर ने ठिक ही तो कहा है – ‘शुचिता निर्भीक होती है और भलाई कभि नहिं करती ।’ कथनी – करनी की एकरुपता एक दिन अवश्यमेव सफलता की विजय वैजयन्ती फहराएगी । इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । ऐसे क्रान्तदर्शी महापुरुष के लिए महाकवि दिनकर रचित ‘चक्रवाक’ काव्य की पंक्तियाँ ह्दय वीणा पर झंकृत हो रही है :–

‘डरो नहीं पथ के काँटो  से,

भरा अमित आनन्द  अजिर में ।

यह दुःख ही ले जाता है,

हमें अमर सुख के मन्दिर में ।।

 बाबा गणिनाथ एक साहसिक महापुरुष थे । सच है हिम्मत से ही मनुष्य कि कीमत होती है । हिम्मतरहित पुरुष का रद्दी कागज के समान कोई आदर नहीं करता । हिम्मत के बिना कोई काम पूरा नहीं हो सकता है । इसी आशा से सुदिनों का कभी न कभी उदय होगा, साहस नहीं छोडना चाहिए । उनके लिए ‘गालिब’ कि ये पंक्तियाँ स्मृतिपटल पर आ रही है –

‘रात–दिन गर्दिश में सातों आसमाँ ’

हो के रहेगा कुछ न कुछ घबराएं क्या ?

अर्थात् सातो आसमान रात–दिन गतिशील हैं । जो होना है, होगा ही, अतः घबडाएं क्यों ? शख्सतरीने ने ठीक हि कहा है –

“अगर मुरदी बुक आवा नजर कुन,

हर च आयद ब पेशद जा गुजर कुन ।”

यदि तू मनुष्य है तो मैदान में आकर देख । जो कुछ विघ्न बाधाए“ तेरे सामने आएं उन्हें पार कर जा । कुछ कर गुजरने वाले ऐसे दिव्य पुरुष के लिए रामधारी सिंह ‘दिनकर’ कृत ‘रश्मिलोक’ काव्य की अमर पंक्तियाँ स्मरण हो रही है –

‘छोडो मत अपनी आन सीस कट जावे ।

मत झुको अनय पर, भले व्योम फट जावे ।।’

 जो भी हो प्रातः स्मरणीय बाबा गणिनाथजी हमारे कानू, हलवाई मादनवाल, यज्ञसैनी समाज के लिए एक आदर्श पुरुष हैं और हमारी जाति के प्रर्वतक भी हैं ।

– ई. डा. हरिकृष्ण अग्रहरि, पी. एच. डी (हंगरी)

‘अग्रहरि भवन’ पोष्ट – भेलाही, भाया – रक्सौल,

जिला: पूर्वी चम्पारण – ८४५३०५

(श्रोत: पुनरउत्थान, राष्ट्रिय त्रैमासिक पत्रिका, २०१६)

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