कान्दू–एक परिचय
कान्दू वैश्य को जानने से पूर्व हमें अपना धर्म और सम्प्रदाय जानना आवश्यक है । धर्म उसको कहते हैं, जिसके नियम धारण करने योग्य हों । नियम १० हैं ।
शौचं त्यागस्तपोदानं स्वाध्यायश्च प्रतिग्रहः ।
व्रतोपवास मौनानि स्नानं च नियमादशः ।।
१. मन कि स्वच्छता, २. त्याग की भावना, ३. तप अर्थात् कुछ सीखने, पाने व दूसरों के लिए कष्ट सहना, ४. दान, ५. स्वाध्याय,
६. प्रतिग्रह (इद्रियों को बस में रखने का प्रयास), ७. व्रत, ८. मौन रहने का अभ्यास, १०. स्नान ।
धृतिः क्षमा, दमो स्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।
हमारा धर्म सनातन है । इसका असली नाम सनातन धर्म है । कुछ लोक इसको हिन्दू अथवा आर्य कहते हैं । हिन्दू शब्द विदेशियों का दिया हुआ है । आर्य कोई जाति नहीं अपितु एक संस्कृति है । संस्कार “दात्री च” ।
सनातन धर्म को मानव धर्म भी कहा जा सकता है पहले सारा समाज यूनिट ब्रह था, समाज बढता गया । विद्वान् वर्ग भी शस्त्र धारण किए । विद्वानों और वीरों में युद्ध हुआ । फिर सन्धि हुई । जो कमजोर वर्ग थे, वह दास बना लिये गये और समाज में धनी गरीब का भेद पैदा हो गया । इस भेद को मिटाने के लिए विद्वानो ने इस समूह को जन अर्थात् विश (वैश्य) जैसी संज्ञा दि । उस समय वैश्यों की शक्ति बढ चली और वैदिक युग समाप्त हुआ । तब मनु ने चार वर्णो का सृजना किया । ब्राह्ण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । लेकिन यह वर्ण–भेद समाज में नहीं के बराबर था । कोई भेद–भाव, हुआ–छूत इत्यादि नहीं था । शूद्रों को भी समाज वका अंग माना जाता था (जन्मना शूद्रो अजायत) ।
फिर धीरे–धीरे समाज बढा और सम्प्रदाय बनने लगे जैसे शै, वैष्णव, शक्त इत्यादि । सम्प्रदाय का अर्थ है, समान आज्ञा प्रदान करने वाला । इस प्रकार हिन्दू, मुसलमान, इसाई, जैन, बौद्ध, सिख सब सम्प्रदाय हुये ।
वर्ण व्यवस्था में मनु जी ने वैश्यों के मुख्यतया सात कर्म निर्धारित किए हैं ः–
पशुनांरक्षणं, दानमिज्या ध्ययनमेव च ।
वणिकापथं कुलीदश्च वैश्यस्य कृषिमेव च ।।
अर्थात् चौपायों की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढना, व्यापार करना, ब्याज लेना, खेती करना आदि ।
कान्दू सम्पूर्ण वैश्य समाज का अंग है । देशकाल के चक्र में तथा शिक्षा की कमी से इसमें हीन भावना आ गई । यह अपने स्वजातीय बन्धुओं से दूर होते हुए ऊ“च–नीच की भावना से ग्रस्त हो गया ।
अब आवश्यकता है कि हम अहंकार छोडकर संगठित होकर रहें । इसके लिए हम पतली–पतली रस्सियों को एक में करके बा“ट दें तब हमारा मजबूत मोटा रस्सी तैयार होगा अर्थात् पहले वैश्य समाज अलग–अलग वर्गो में संगठित हो जाय तभी वैश्य समाज एक पूर्ण संगठन बन सकेगा ।
वास्तव में शिक्षा के अभाव के कारण वैश्य वर्ग को चार श्रेणियों में बांट दिया गया ः–
१. बक्काल: जो फेरी लगाकर माल बेचते थे । अंग्रेज भी पहले फेरी लगाकर ही माल बेचना शुरु किये थे । इसलिए उनको फिरंगी कहा जाता था ।
२. बनिया: जो बस्तुत: न्याय करता है । यदि कोई बनिया के यहां से चीनी लेने गया और पुनः वापस करके चावल ले जाना चाहता है तो बनिया उस वस्तु के साथ पूरा न्याय करता है और उतने ही मूल्य का चावल दे देता है तथा दो बार तोलने का कोई पारिश्रमिक नहीं लेता है ।
३. श्रेष्ठी (सेठी): थोक व्यापारी को सोठजी कहा जाता है ।
४. महाजन: ये प्राची समय में बैंकर होते थे, ऋण देते थे और बहुत ही आदरणीय होते थे । राजा तक इनसे ऋण लेते थे । ये आभूषणों को भी क्रय–विक्रय करते थे और दूसरे लोग इनसे शिक्षा लेते थे (महाजनों येन गतः स पन्थाः) अब सोचिए क्या यह समाज निम्न श्रेणी में आता है, हा“ पिछडा अवश्य है । वह इसलिए कि इसको आज तक कोई सही दिशा देने वाला नहीं मिला, कोई त्यागी लीडर (अगुआ) नहीं मिला ।
इस वर्ग में हेमु बक्काल हुआ, जिसने हुमायूं को हराया था भाभाशाह जैसे भी बनारसी (कवि एवं सम्पादक) इनका असली नाम मोहन लाल गुप्त था । इनका देहान्द ८३ वर्ष की अवस्था में हुआ था । मैथिली शरण गुप्त जिला झांसी पुत्र सेठ राम चरण । महाकवि जयशंकर प्रसाद भी वैश्य थे । इनके पूर्वज सु“धनी साहू के नाम से विख्यात थे, शिव रतन साहू इनके पितामह थे । इनके पिता का नाम देवी प्रसाद गुप्ता था । ये लोग सुरती, तम्बाकू के व्यापारी थे । आज भी हमारे समाज में श्री रामचन्द्र गुप्ता (आर.सी. गुप्ता) एक कवि, लेखक, विचारक एवं दैनिक “स्वतंत्र चेतना पत्रिका” (अयोध्या) के प्रधान सम्पादक हैं ।
इसलिए हमें शिक्षित होना चाहिए । संगठित होना चाहिए । अर्थात साथ चलो, एक लक्ष्य हो, एक मन रखें, समान विचार करो, समान हो, एकत्र हो, एक ही आनन्द के ध्येयी हो, एक निश्चय हो, एक ही लक्ष्य हो जावो । समान मन से ही श्रेष्ठ विकास होता है । तब एक बढी उदात्त बात कही गयी ।
सह्दयं सामन्स्यं विद्वेषं कृणोति वः ।
अन्यो अन्यमाभि (ह्यर्त) वत्सं जातभिवाधन्या ।
अर्थात् एक ह्दय हो, एक मनस हो, एक दूसरे से संबंध रखते वक्त घृणा से दूरी रखो । जैसे अपने हाल के पैदा हुए बछडे को गाय पयर करती है, वैसे ही हर एक को पयार करो । मैथिलीशरण गुप्त की यह कविता जो भारत भारती में है :–
निज पूर्वजों के सद्गुणों को, यत्न से मन में धरो । सब आत्म परिभव तज कर, निज रुप का चिन्तन करो ।
भारत वर्ष मे वैश्य समाज के ३६५ उपवर्ग
(अकारादि क्रम से)
अग्रवाल, अग्रवाल (कदिमी), अग्रहरि, अचतवाल, अजमेरा, अटाचर, अटोडे, अडनिया, अडोरा, अडय, अयोध्यावासी, अरचितवाल, आंग्यार, अवधपुरिया, अवधवाल, अवधिया, असाठी, आनेपवाल, आर्यवैश्य, इन्दौरिया, उर्वला, उनाई, उसमार, ओमर, अमर, अंडाजल, ककोला, कजोहीवाल, कठेरवाल, कथोला, कन्होई, कपाडिया, कपोला, कमलपुरिया (कथ), कमलापुरी (कमलपुया), कम्बोवाल, कलाल, कलवार, (कलार), करटीवाल, कसैरा, कसौधन, कश्मीरी कानू, काकरिया, काखना, काठ, कान्यकुब्ज, कांदू, कान्दवीक, कुन्तयर, कुमारतनय, कुरवार, कुंवरे, केसरवानी, कैथलवैश्य, कामटी, कोलवार, कोलापुरी, खटीरे, खडायत, खण्डेलवाल, खाख, खातरवाल, गजेरा, गडदास, गढवाली, गबचक, गसौरा, गहोई, गर्गेरवाला, गांधरिया, गिदौदिया (गंधारिया), गुजराती, गुजारवाला, गुडिया, गुलहरे, गोगवार, गोभुज, गोलपुरी, गोलबारी, गुजरवाला, गोलाईगोरखे, गोहले गौरत, गौरी, गंगराडा, गंगापारी, ग्वारी, घामी, चकाडे, चक्कचाप, चतुरथ, चतुश्र्रेणी, चित्रवाल, जीवणवाल, जेना, जैतवाल, जैतीसवार, जैन, झरियाल, झरौल, झाकडे, झगडूवाल, टकचाल, टटार, टटोरिया, टीटोडा, टोकवाल, ठठवाल, दोतवाय, दोसर, दृढोमर, द्वरिकावासी, धवल, धवलकोष्ठी, धाकड (माहेश्वरी), धाडी, धरवाल, धोई, नचत्ररा, नरसियां, नरसिंहपुरे, जैनो, पधारा, पटनापुरी, पटानिया, पडासिया, पुरातन, पुरुवाल, पदमीरा, पयचवाल, परवाल, पल्लीवाल, पवाचिया, पंचमपोखरा, पाटोलिया, बदतोरा, बन्दरवाल, बरनवाल, बरमाका, बावरिया, बिलसवार, गुठल, बेरहमासि, भृत्युनुरी, बौगार, भगवाडी मडर, मथवर, मध्यदेशीय, मडीहड, महाजन वैश्य, महावणिक, महाराजन, महावर, महेश्वरी, माडालिया माथुर, मोरको, यज्ञसैनी, रजिया, रस्तोगी (रोहतबी), रहती, राजपुरी, राजवंशी, रामा, रुई, रोगोरा, रोथाई, रौनियार, लवेच, लाकम, लाड, लुहारिनाया, वामेचवाइस, वायेदा, वालमीवाल, वाष्र्णेय (बारहसेनी), विदियादा, विजयवर्गीय, विश्नोई, वेडनारा, वैश, बोगरा, वर्णवारा, वोहरा, सोजतवाल, सोहरवाल, सौथत, सौरठिया, साहू, सोनी, शिवहरे, शूरसेन, शैण्ड्रिके, श्रावक, श्रीमाल, हरद, हरसोमरा, हरादुई हलोरा, हकरिया, हूम, होहल, हलवाई, हरद्वारी, साहू, गांधी ।
(श्रोत: पुनरउत्थान, राष्ट्रिय त्रैमासिक पत्रिका, २०१६)