माक्ष का अर्थ है छुटकारा । मनुष्य अपने कर्मानुसार चौरासी लाख योनियों में भटकता रहता है और अपने कर्मो के फल खाता रहता है । मनुष्य को सुख–दुःख आदि कर्मो के अनुसार ही मिलते हैं । सन्त महात्मा और सभी शास्त्र यह बतलाते हैं कि जैसे बीज बोओगे वैसे ही फल खाने को मिलेंगे । अगर मनुष्य मोक्ष चाहता है तो उसे मोक्ष मिल सकता है । जो व्यक्ति रग–द्वेष से मुक्त हो जाता है तथा जो सुख–दुःख, लाभ–हानी, जय–पराजय को समान समझकर जीवन–संग्राम में उतरता है उस व्यक्ति को पाप नहीं लगते, ऐसा भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं ही अर्जुन को महाभारत के युद्ध में अमर गीता का सन्देश सुनाते हुए कहा था । जो व्यक्ति जीवन संग्राम में भगवान के अमर–सन्देश के अनुसार बुराइयों व दुष्टों से लडाई करते हैं और श्रेष्ठ व्यक्तियों की रक्षा करते हैं तथा धर्म की स्थापना करते हैं, ऐसे व्यक्तियों को किसी भी प्रकार का भय, तनाव व चिन्ता नहीं होती ।
भय, तनाव व चिन्ताओं से छुटकारा पाने का नाम हि मोक्ष है । संसार में अशान्त, भयभीत, चिन्तित, तनावग्रस्त, दुःखी एवं कठिनाईग्रस्त व्यक्ति वही है जो अपने कत्र्तव्य पालन में तत्पर नहीं रहता । मनुष्य को सदा श्रेष्ठ कार्य ही करने चाहिए जिनके सत्परिणाम हो ।
मनुष्य को सदा श्रेष्ठ कार्य करने का ध्यान बनाये रखने व उसे श्रेष्ठ कार्य करने की प्रेरणा देने के लिए एकादशी व्रत करने की शास्त्रों में आज्ञा दी गई है । बारह महिनों में चौबीस एकादशिया“ होती है और जब कभी अधिक मास होता है तो दो एकादशी और होती हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं –
उत्पन्ना, मोक्षदा (मोक्ष को देने वाली), सफल (सफलता दायक), पुत्रदा (पुत्र देने वाली), षट्तिला, जया, विजया, आमलकी, पापमोचनी (पाप से छुडाने वाली), कामदा (समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाली), बरुथनी (श्रेष्ठ वर देने वाली), मोहिनी, अपरा, निर्जला, योगिनी, देवशयनी, कामिका, पुत्रदा, अजा, परिवर्तिनी, इन्दिरा, पाशांकुशा, रमा, देव प्रवोधिनी, पद्मिनी, परमा ।
इन सभी एकादशियों के व्रत का उनके नाम के अनुरुप फल प्राप्त होता है । “आमलकी” एकादशी में आंवले खाने का महात्म्य है । आंवला में अत्यन्त शक्तिशाली रसायन होता है । गायत्री मंत्र का जप और आंवले के रस का सेवन मुक्तिदायक है । जिस प्रकार गायत्री मंत्र के जप से परमज्ञान (केवल ज्ञान) प्राप्त होता है उसी प्रकार से आंवले के सेवन से शरीर की शुद्धि होती है और निरोगिता प्राप्त होती है ।
मोक्षदा एकादशी यह प्रेरण देती है कि मानव जीवन ही अन्तिम जन्म है । इस बात को मानने की परम आवश्यकता कि हमारा यह जन्म ही अन्तिम जन्म है । आगे हमें जन्म नहीं लेना पडेगा । हमें यह जन्म केवल इस लिए मिला है कि हम महाप्राण चेतना शक्ति (परमात्मा) को पहिचान कर उस शक्ति के साथ अपने जीवन को आत्मसात् कर दें । हम ईश्वर का अनुशासन मानें । ईश्वरीय अनुशासन की जानकारी हमें शास्त्रों से और सन्त महात्माओं की अमर वाणी (उपदेशों) से ही प्राप्त हो सकिती है ।
मोक्षदा एकादशी मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष में आती है । इसी एकादशी के दिन श्रीमद् भागवद् गीता का जन्म हुआ था । श्री कृष्ण भगवान ने गीता का अमर उपदेश इसी दिन दिया था । गीता के अठारह अध्यायों में अठारह प्रकार के योग हैं । इन योगों को धारण करके महाभारत (जीवन संग्राम) लडा जाना है । यह विश्वास रखना है कि इस संग्राम में परमात्मा सारथी के रुप में हमारे साथ हैं । वे हमारे जीवन रथ को जितनी अच्छी प्रकार से चला सकते हैं उतना अच्छी प्रकार से अन्य कोई नहीं चला सकता । हमें इसके लिए तो केवल उनकी शरण में जाना है । अपना यह विश्वास पक्का करना है कि हम परमात्मा की शरण में हैं तथा उनकी शरण में हमारा निश्चित रुप से कल्याण ही होगा और रोग–शोक, कष्ट–कठिनाइयों, गरीबी, जन्म–मरण आदि से मोक्ष (छुतकारा) मिलेगा ।
मनुष्य स्वयं ही दुखों में फंस जाता है और स्वयं ही उनसे छुटकारा पा सकता है ।
उद्धरेदात्मनाकत्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव हत्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।। गीता अं. ६ ।।
अर्थ–हम स्वयं अपना उद्धार करें और अपने को पतन के गत्र्त में न गिरावें क्योंकि हम स्वयं ही अपना मित्र हैं और स्वयं ही अपना शत्रु हैं ।
— धर्मनाथ प्रसाद गुप्ता
महामंत्री, श्री गणिनाथ गोविन्दजी चैरिटेबिल ट्रस्ट रक्सौल, पूर्वी चम्पारण
श्रोत: पुनरउत्थान, राष्ट्रिय त्रैमासिक पत्रिका, २०१६